सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, January 9, 2014

बेगैरत सा यह समाज . . . . .

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर,
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है|

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना,
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है|

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज,
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है|

मानवाधिकार के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता,
हर इलज़ाम सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है|

दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती,
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है|

सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती,
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है|

शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को,
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है|

स्वयं मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है|
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है|



© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!

6 comments:

Rajendra kumar said...

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (10.01.2014) को " चली लांघने सप्त सिन्धु मैं (चर्चा -1488)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,नव वर्ष की मंगलकामनाएँ,धन्यबाद।

रचना said...

good one alokita keep the good work going

प्रतुल वशिष्ठ said...

आलोकिता जी की यह पूरी रचना संवेदनशील समाज को झकझोर देने में सक्षम है।
आँखों वाला पुरुष समाज नारी की यह चौमुखी दुर्दशा देखकर यदि अपनी आँखें भी फोड़ ले तो भी उस प्रायश्चित से ईश्वर प्रसन्न होने से रहा।

प्रतुल वशिष्ठ said...

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर,
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है|
@ जैसी भी इंसानियत की हदें हैं , जो भी उन्हें तोड़ता है
रोज़ रोज़ होता है जहाँ भी ये उपक्रम, वहाँ संस्कारों की ताक कहाँ है ?

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना,
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है|
@ 'काम' क्रीड़ा ही नहीं संस्कार भी है
द्वै सोच का अंतर निरंतर द्वंद्व करता
मान जिसको रौंदता नर है खिलौना
क्या खुद नहीं वह काम के हाथों में रुंदता
आलोकिता आक्रोश में त्रिनेत्र खोले
भस्म करने को अराजक काम गुंडा
देह रहित हर 'काम' पर संदेह करके
भयभीत हो जाते जुड़े सद्भाव सारे
तैरते हैं हंस मोहित जिस सरोवर
जल उसी का गदला करने
एक झष पर्याप्त होता

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज,
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है|
@ विकृत 'पुरुष मानसिकता ' होती है कैसे तैयार?
कौन उसे करता है पोषित कौन-कौन हैं यार ?

kuldeep thakur said...

दिनांक 012/09/2017 को...
आप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...

maclainhable said...

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