सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, September 25, 2008

नागफनी

अपने से कमज़ोर
मत समझो दूसरे को
वह कोई गाजर - मूली नहीं
खोद कर निकल लोगे जड़ समेत
फिर
काट कर टुकडे टुकडे कर डालोगे उसके
वह भी है नागफनी
जिस की जड़े मिटटी मे धसीं हैं
उखाड़ने से पहले
काटने से पहले
सोच लो एक बार
तुम्हारा भी हाथ
लहू लुहान हो सकता हैं
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Monday, September 15, 2008

धर्म की परिभाषा

कभी कभी मन कहता हैं
की आओ सब मिल कर
एक साथ
विसर्जित कर दे
हर धर्म ग्रन्थ को
हर मूर्ति को
हर गीता , बाइबल
कुरान और गुरुग्रथ साहिब को
एक ऐसे विशाल सागर मे
जहाँ से फिर कोई
मानवता इनको बाहर
ना ला सके
किस धर्म मे लिखा हैं
की धमाके करो
मरो और मारो
और अगर लिखा हैं
तो चलो करो विसर्जित
अपने उस धर्म को
अपनी आस्था को अपने
मन मे रखो और
जीओ और जीने दो
मानवता अब शर्मसार हो रही हैं
तुम्हारी धर्म की परिभाषा से
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Tuesday, September 9, 2008

ये न कहो कि संघर्ष नाकाम है...

वर्षा की ये पोस्ट नारी ब्लॉग से हटा कर नारी कविता ब्लॉग पर डाल रही हूँ
हमें नारी हमें हक़ के साथ की आर्ष की पर भी बात करनी चाहिए। उनके दिमाग़ में कमज़ोरियों के बीज बोने वाले ताने-बाने पर भी। कमज़ोरियां कम होंगी तो हम ताकतवर होंगी। एक अंग्रेजी कविता जिसका अनुवाद उज्ज्वला म्हात्रे ने किया है, अभी मेरी नज़र उसी कविता पर पड़ी, जिन लोगों ने न पढ़ी हो उनके लिए.....
ये न कहो संघर्ष नाकाम है
कि वो श्रम और वे ज़ख़्म बेकार गए
कि शत्रु थकता नहीं न हारता है
और स्थितियां जैसी थी वैसी ही रहती हैं
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अगर उम्मीदों ने छला है तुम्हें
आशंकाएं भी तो बेबुनियाद हो सकती हैं
उस धुएं के पार देखो, लड़ाई अब भी जारी है
डटे हैं मैदान-ए-जंग में, कमी बस तुम्हारी है
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माना कि किनारे पर टूटती, थकी लहरों को देख
लगता है इनका प्रयास कितना विफल है
पर दूर, खाड़ियों और नए रास्तों को चुनकर
दृढ़ लहरें चुपचाप घुस आई हैं

और सिर्फ पूरब की खिड़कियों से ही नहीं आता प्रकाश
जब दिन उगता है
सामने सूरज धीरे, कितने धीरे चढ़ता है
पर पश्चिम की ओर देखो
उसके प्रकाश से धरा प्रदीप्त है
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Thursday, September 4, 2008

कौन हैं वह जो नारी को प्रतिस्पर्धी समझते हैं ?

पिता कहते हैं
"पुत्री मेरी आगे बढे , तरक्की करे
लालन पालन का वादा मेरा
मै तो बस इतना ही चाहता हूँ "
भाई कहते हैं
"बहिन मेरी आगे बढे , पढे , लिखे ।
नौकरी करे , सुरक्षा का वादा मेरा
मै बस इतना ही चाहता हूँ "
पति कहते हैं
"पत्नी मेरी , नौकरी करे , आगे बढे
सामाजिक व्यवस्था मे बराबरी का वादा मेरा
मै बस इतना ही चाहता हूँ "
फिर
नारी प्रतिस्पर्धा करती हैं पुरूष से
ये किसने कहा और क्यों ??
क्या ढकोसला हैं वह सब जो
एक पिता , भाई और पति
समय समय पर कहते हैं ।
कौन हैं वह जो नारी को
प्रतिस्पर्धी समझते हैं ?


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Tuesday, September 2, 2008

A poem by Amrita Pretam

चाँद सूरज जिस तरह
एक झील में उतरतें हैं
मैंने तुम्हे देखा नही
कुछ नक्श से उभरते हैं
वायदों को तोड़ती है
एक बार ही ये जिन्दगी
कुछ लोग हें मेरी तरह
फ़िर एतबार करते हें
----नीलिमा गर्ग