सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, July 1, 2008

" मेरे पूरक " भाग २

यह कविता सिद्दार्थ जी ने मेरे पूरक रचना जी की कविता की टिप्पणियां में लिखी है ॥ बहुत कुछ कहती है इसको हम यहाँ मेहमान कविता के रूप में पोस्ट कर रहे हैं , अपनी प्रतिक्रया आप भी दे .......

" मेरे पूरक " भाग २

‘अंधे का पुत्र अंधा’ से बात आगे बढ़ गयी थी
चीर हरण की शर्म धोने के लिए
‘महाभारत’ की लड़ाई लड़ी गयी थी
धोबी को दिया गया वचन
दे गया राम को भी वही वियोग
जो सीता ने वनवास में पाया
लव-कुश से राम की गोद भी खाली रही
नहीं मिला संयोग
आज भी हम सीताराम कहते हैं
राम-सीता नहीं
घर बसाने पर
मालकिन का दर्जा भी अपने-आप मिलता है
कोई मालिक ख़ैरात नहीं करता है
लम्बी आयु की कामना में
करवाचौथ
इसमें कोई स्वार्थ न हो
तो बन्द कर दें इसे
बहुतों ने किया भी है
लेकिन
शायद यह हो न सकेगा
प्रकृति का वरदान
माँ की कोख
इसपर भी तेरा-मेरा?
क्या कहें!
इसका पूरक भी बताना पड़ेगा?
कथाओं को पूरा पढ़ना जरूरी है
अपने को अलग करने की
दीवानगी
कहाँ तक ले जाएगी?
डर लगता है।

सिद्दार्थ
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

9 comments:

ghughutibasuti said...

सिद्धार्थ जी,पहले नारी को जुए पर लगाकर महाभारत का युद्ध कर नारी पर एहसान करना,पहले नारी को वनवास दे फिर स्वयं भी विरह की आग में जलने का एहसान करना, यह सब महानता तो है ही। महान होने पर कोई शक है भी नहीं। यदि यह मान लिया जाए कि समाज में कुछ गड़बड़ है और उसे बदलने का यत्न किया जाए तो बुरा तो नहीं ही होगा। इसके लिए आवश्यक है कि पहले क्या गलत है यह सोचा समझा जाए। आँखें मूँदे रहने से सब कभी ठीक नहीं होगा। वैसे आप स्त्री विषयक ब्लॉग पढ़ते हैं , उन्हें गम्भीरता से लेते हैं, यह अपने आप में एक अच्छा संकेत है।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

bhut acche. jari rhe.

Anonymous said...

घुघूती बासूती जी
आपने इस कविता पर अपनी कमेन्ट मे वोह सब कह दिया जो मेने
मेरे पूरक ??
के रूप मे पूछा था ? किस अधिकार से नारी को जुए मे हारा जा सकता हैं और किस अधिकार से उसे वनवास दिया जा सकता हैं एक पति के द्वारा मुझे तो कम से कम कभी समझ नहीं आया . और सब कुकर्म कर के फिर पत्नी को ये कहना की ये लड़ाई मेने तुम्हारे लिये लडी थी केवल ये दिखता हैं की पत्नी जागीर है पति की और कुछ नहीं . पति - पत्नी का रिश्ता केवल संतान उत्पत्ति के लिये मान्यता प्राप्त हैं भारतीये समाज मे इस मे एक दुसरे के पूरक होने का कोई प्रश्न ही नहीं हैं . बहुत कम स्रियाँ इतनी भाग्य शाली होगी जो पति के साथ अपनी को सम्पूर्ण महसूस करती हैं

रश्मि प्रभा... said...

सच है ज्ञान की कमी है....
आप ही ज्ञान दें हमें,
क्या द्रौपदी ने जुए की सलाह दी थी?
क्या अग्नि-परीक्षा का कोई अर्थ नहीं था?
क्या धोबी की बातें गर्भवती सीता से अधिक मूल्यवान थीं?
क्या लक्ष्मण भी मर्यादित सीमाओं में थे?
क्या सीता के प्रति अयोध्या का कोई कर्त्तव्य नहीं था?
लव-कुश जीवित हैं या नहीं -
ये राम ने जाना कब?
प्रश्न तो जाने कितने हैं,
ज्ञान की शुरुआत यहीं से हो...........

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

घुघूती बासूती जी,“एहसान” की बात तो आप सोच बैठी, बिलकुल जैसे रचना जी ने नौ महीने तक कोंख में पालने को (चाहे बेटी ही पल रही हो), घर बसाने को, चीर-हरण को, वनवास जाने को इसी रूप में गिना दिया। ऐसा न राम ने सोचा होगा, न पाण्डवों ने। और न ही आज का कोई सभ्य पुरुष ऐसा सोचेगा। जुआ, शराब, और वासना मनुष्य की आत्मा को नष्ट कर देते हैं। यह ग़लत है और इसे सभी मानते भी हैं। मेरा आशय तो यह है कि पुरुष का अलग अस्तित्व भी स्त्री के अस्तित्व पर ही निर्भर है। यही बात स्त्री के लिए भी उतनी ही सही है। फिर ये परस्पर पूरक तो हुए ना...
रचना जी, यदि आप यह मानती हैं कि, “पति - पत्नी का रिश्ता केवल संतान उत्पत्ति के लिये मान्यता प्राप्त हैं भारतीये समाज मे इस मे एक दुसरे के पूरक होने का कोई प्रश्न ही नहीं हैं” तो मैं आपकी सोच को दूर से प्रणाम करता हूँ।
किन्तु यदि ऐसा ही सच होता तो सभ्यता की सारी कहानियाँ बेमानी होती। सीता-राम, राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण, शिव-पार्वती के आदर्श हों या इस दुनिया में लैला-मजनूँ, सीरी-फ़रहाद, रोमियो-जूलियट की रूमानी कथाएं हों आपके लिए सब निरर्थक है। भाई-बहन और माँ-बेटा का भावुक रिश्ता या सदियों से जिस विषय पर कवियों, शायरों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों व फिल्मकारों ने सबसे ज्यादा लिखा और काम किया वह दो दिलों के मिलन का रिश्ता क्या बिलकुल फ़र्जी है। एक दूसरे के लिए प्राणों का निसर्ग कर देना आज भी देखने को मिल जाता है। इसे आप शायद मूर्खता कहेंगी। लेकिन इस रिश्ते में जो अधिकार है वह किसी राजनीति शास्त्र की किताब में नहीं मिलेगा और न ही संविधान में इसकी व्यवस्था हो पाएगी। लेकिन यह अधिकार समाज द्वारा विवाह नामक संस्था के माध्यम से ही पति-पत्नी को एक दूसरे के लिए दिया जाता है।
आप कहती हैं कि, “बहुत कम स्रियाँ इतनी भाग्य शाली होगी जो पति के साथ अपनी को सम्पूर्ण महसूस करती हैं” यह बात सच हो सकती है लेकिन ‘सम्पूर्णता’ के दायरे में तो बहुत कुछ आता है। पति से इतनी बड़ी उम्मीद करने लगीं आप? किस अधिकार से? आपका उत्तर इसी में छिपा है।
रश्मी जी, मैं इतना ज्ञानी नहीं हूँ जितने की उम्मीद आप कर रही हैं। लेकिन मुझे विश्वास है कि पूरी रामायण दुबारा पढ़ेंगी तो आपके प्रश्नों का उत्तर जरूर मिल जाएगा।

आलोक साहिल said...

ls88हा हा हा .........माफ़ी चाहूँगा जब कभी वाद विवाद होते देखता हूँ तो मजा लिए बिना नहीं रह पता.खुसी है की भारत में सार्थक बहस भी होती है.
सिद्धार्थ जी पहली बधाई आपको अच्छी प्रस्तुति हेतु,
दूसरी बधाई रंजू जी को जिन्होंने आपको लाया.
तीसरी सभी को जो इस सार्थक बहस के हिस्से हैं.
आलोक सिंह "साहिल"

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

देवियों, मैं यहाँ कोई “स्कूली डिबेट” जीतने नहीं आया था। ...मेरा उद्देश्य अनायास बँट रहे दिलों को करीब लाने का प्रयास मात्र था। लेकिन यहाँ तो हथियार निकल पड़े... चलता हूँ।

Anonymous said...

"पति से इतनी बड़ी उम्मीद करने लगीं आप? किस अधिकार से? " kyoki pati purak haen stri kaa aur stri purak haen pati agar yae baat sahii hotee to jo adhikaar pati ka patni par hota haen wahii patni ka pati par hona chahiyae . kya hamarey samaj mae esa tha yaa haen ?? yahii karan haen ki aaj naari alag bina purush kae bhii apney maarg prasht kar rahee haen . aanam kament dae rahee hun kyoki naam jae saath daene ki himmat nahin haen kyoki bahut sae jaankar is blog ko padhtey . har patni agar apna satay kehna shuru kardae to jamin upar aur aasman neechay ho gaa

राज भाटिय़ा said...

रंजु जी ,:)अरे बाप रे भागो :)